This last chapter of the Bhagavad Gita is the longest as it explicates many subjects. It starts with Arjun requesting Shree Krishna to educate him on renunciation and explain the difference between these two Sanskrit words; sanyās (renunciation of actions) and tyāg (renunciation of desires), as both come from the root words that mean “to abandon.” A sanyāsī (monk) is one who has renounced family and social life to practice sādhanā (spiritual discipline). And a tyāgī is one who acts without selfish desires for the rewards of his actions. However, Shree Krishna recommends another type of renunciation.
भगवद्गीता का अंतिम अध्याय सबसे बड़ा है और इसमें कई विषयों को सम्मिलित किया गया है। अर्जुन संस्कृत में प्रायः प्रयुक्त होने वाले दो शब्दों संन्यास और त्याग के संबंध में प्रश्न पूछने के साथ संन्यास के विषय पर चर्चा प्रारम्भ करता है। दोनों शब्द एक ही मूल धातु के हैं जिसका अर्थ ‘परित्याग करना’ है। संन्यासी वह है जो गृहस्थ जीवन में भाग नहीं लेता और समाज को त्याग कर साधना का अभ्यास करता है। त्यागी वह है जो कर्म में संलग्न रहता है लेकिन कर्म-फल का भोग करने की इच्छा का त्याग करता है। (यही गीता की वाणी का मुख्य अभिप्राय है) श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के त्याग की संतुति करते हैं।
Reviews
There are no reviews yet.